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लोक की अवधारणा

ऋग्वेद में लोक शब्द जन के पर्यावाची के रूप मे किया गया है अथर्ववेद में लोक शब्द से दो लोको की स्थिति का बोध कराया गया है ये दो लोक पार्थिव एवं दिव्य है।उपनिषदों में लोक शब्द का प्रयोग अनेक स्थानों पर साथ ही महाभारत व श्रीमद्भागवत गीता में भी लोक शब्द मिलता है भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में लोक शब्द का प्रयोग सटीक रूप में किया गया है। उन्होंने लिखा है कि इस नाट्यशास्त्र की रचना लोक - मनोरंजन हेतु की जा रही है। रामचरित मानस में भी लोक का वर्णन है भरत विनय सादर सुनिहु करेह विचारि बहोरि | करब साधुमत 'लोकमत' नृपनय निगम निचोरि । लोक राष्ट्र का चैतन्य स्वरुप है 'लोक'का तात्पर्य ऐसी जनता जो अभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता, पांडित्य चेतना अथवा अहंकार से शून्य है तथा परंपरा के प्रवाह में जीवित है | भारतीय परंपरा में 'लोक' पूर्वजों एवं प्रकृति से जुड़ा हुआ है जो अतीत एवं वर्तमान से जुड़कर भविष्य के लिए सन्नध रहता है |

मध्य प्रदेश एवं लोकसंस्कृति

संस्कृति एक व्यापक शब्द है, जिसमें एक तरफ लोकसंस्कृति से आदर्श और मूल्य समाहित रहते हैं और दूसरी तरफ उच्चवर्गीय परिनिष्ठित संस्कृति के । असल में संस्कृति एक जीवित प्रक्रिया है, जो लोक के स्तर पर अंकुरित होती है, पनपती और फैलती है तथा पूरे लोक को संस्कारित करती है एवं विशिष्ट स्तर पर अनेक लोकों के विविध पुष्पों द्वारा एक सुंदर माला निर्मित करती है। इसी तरह लोक-स्तर पर वह लोक-संस्कृति है, जिसमें जनसामान्य के आदर्श, विश्वास, रीतिरिवाज आदि व्यक्त होते हैं, जबकि विशिष्ट स्तर पर वह संस्कृति कही जाती है, जिसमें परिनिष्ठित मूल्य आचार-विचार, रहन-सहन के ढ़ग आदि संघटित रहते हैं। मललब यह है कि लोकसंस्कृति और परिनिष्ठित संस्कृति, दोनों एक-दूसरे से संग्रथित होती हुई भी भिन्न हैं । प्रत्येक सांस्कृतिक क्षेत्र या भू-भाग का एक अलग जीवंत लोकजीवन, साहित्य, संस्कृति, इतिहास, कला, बोली और परिवेश हैं। मध्यप्रदेश लोक-संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वान श्री वसन्त निरगुणे लिखते हैं- "संस्कृति किसी एक अकेले का दाय नहीं होती, उसमें पूरे समूह का सक्रीय सामूहिक दायित्व होता है। सांस्कृतिक अंचल (या क्षेत्र) की इयत्ता इसी भाव भूमि पर खड़ी होती है। जीवन शैली, कला, साहित्य और वाचिक परम्परा मिलकर किसी अंचल की सांस्कृतिक पहचान बनाती है । "मध्य प्रदेश में मोटे तौर पर निमाड़, बघेलखंड, बुन्देलखण्ड और मालवांचल समाहित हैं। मध्य प्रदेश के निमाड़, बघेलखंड, बुन्देलखण्ड और मालवा अंचलों की संस्कृति प्राचीन तथा समृद्ध है। माना जा सकता है कि उपर्युक्त सभी अंचलों की लोक संस्कृति का विकास मुख्यतः स्थानीय स्तर पर हुआ है। लोक संस्कृति की इस विकास यात्रा में अनेक महत्त्वपूर्ण पड़ाव आये होंगे जब समाज ने प्रकृति, पर्यावरण, जल, भूमि और वायु के रहस्यों को समझकर अपनाया होगा। उन्हें जीवनशैली का हितैषी अंग बनाने के लिये जुगत की होगी ।

लोक संस्कृति में निहित विश्व कल्याण का भाव

भारतीय परंपरा में 'लोक' पूर्वजों एवं प्रकृति से जुड़ा हुआ है जो अतीत एवं वर्तमान से जुड़कर भविष्य के लिए सन्नध रहता है | ”प्रत्यक्षदर्शी लोकानां सर्वदर्शी भवेन्नः ”वस्तुतः लोक में अनुष्ठानिक कार्यों कि प्रधानता होती है, जिसमें चिंतन के व्यापक अर्थ निहित होते है तथा लोकहित का भाव उसके स्वरुप का निर्धारण करते है | लोक कला में निहित चिंतन, भाव एवं अनुष्ठान समाज को सुरक्षित व समृद्ध बनाते है

लोक एवं राष्ट्र

राष्ट्र के जीवित रहने के लिए लोक की भावना आवश्यक है। वह भावना कृति में, विभिन्न प्रकार के जीवन के आयामों में कैसे प्रकट होती है, यही लोक परंपरा है, लोक है, लोक गीत हैं, लोक कथाएं हैं, लोक संस्कृति है, लोक व्यवहार है, लोकाचार है, लोकाभिराम है। 'लोक किसी राष्ट्र पहचान ही नहीं बल्कि उसकी आत्मा है लोक राष्ट्र का अंतः स्वरुप है व वो पद चिन्ह है जो राष्ट्र की वर्तमान स्थिति तक पहुंचने का इतिहास बताते है

उद्देश्य

 लोक कला सभ्यताओं के इतिहास, मानव संघर्ष व विकास के क्रम की रचनात्मक अभिव्यक्ति है। चित्रकलाए, संगीत, साहित्य, परंपराएं, किसी समाज स्थान और समय का दर्पण है जो वास्तविकता को परिभाषित करता है। और हमारा उद्देश्य भारत की कलाएं जो भारत के विचारों का प्रतिबिंब है उनके यशस्वी स्वरूप को समाज तक पहुंचाना है। लोक कलाओं के माध्यम से युवाओं और समाज को समृद्ध राष्ट्र से जोड़ना व भारत के मूल स्वरूप को सांस्कृतिक रूप से स्थापित करना यही उद्देश्य के साथ कला सांस्कृतिक लोक उत्सव आप सबकी भागीदारी के साथ सफल होगा ऐसा हम विश्वास रखते हैं।

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